लखनऊ बेंच ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि कोऑपरेटिव बैंक के अधिकारी भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 2 के तहत सरकारी सेवक माने जाएंगे। इसका अर्थ है कि उनके खिलाफ भी इस अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज की जा सकती है। यह निर्णय न्यायमूर्ति अब्दुल मोइन और न्यायमूर्ति बबीता रानी की खंडपीठ ने सुनाया। पीठ ने कोऑपरेटिव बैंक के डिप्टी जनरल मैनेजर सुभाष चंद्र की याचिका को खारिज करते हुए यह फैसला दिया। याची सुभाष चंद्र ने विजिलेंस विभाग द्वारा दर्ज की गई एफआईआर को चुनौती दी थी। उन पर आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने का आरोप है। एफआईआर में कहा गया है कि सुभाष चंद्र ने अपनी आय के ज्ञात स्रोतों से तीन करोड़ रुपये से अधिक की अतिरिक्त संपत्ति बनाई, जिसका वे स्रोत नहीं बता सके। अभियुक्त की ओर से दलील दी गई थी कि उनके विरुद्ध विभागीय जांच हो चुकी है, जिसमें उन्हें क्लीन चिट मिली है। साथ ही, यह भी तर्क दिया गया कि कोऑपरेटिव बैंक के अधिकारी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 2 के तहत सरकारी सेवक की परिभाषा में नहीं आते। याचिका का विरोध करते हुए वादी के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि सर्वोच्च न्यायालय वेंकू रेड्डी के मामले में कोऑपरेटिव बैंक के अधिकारी को पहले ही सरकारी सेवक करार दे चुका है। न्यायालय ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अपने फैसले में कहा कि शीर्ष अदालत के वेंकू रेड्डी मामले में दिए गए फैसले से यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश के कोऑपरेटिव बैंक के अधिकारी भी सरकारी सेवक हैं। इसलिए वे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 2 के तहत सरकारी सेवक की परिभाषा के दायरे में आते हैं। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि अभियुक्त के विरुद्ध हुई विभागीय जांच में आय से अधिक संपत्ति के बिंदु पर कोई जांच नहीं की गई थी। अतः उस विभागीय जांच में मिली क्लीन चिट का लाभ वर्तमान मामले में उन्हें नहीं दिया जा सकता।